जो दिल की लिखूँगा तो इन्क़िलाब लिखूँगा
ख़ामोशी का ही पहरा रहता है मेरे ज़हन में अक़्सर
पन्नों पर फटूँगा तो सैलाब लिखूँगा
दुनियां की इस मोह-माया से यूँ तो परे हूँ
ग़र जो बन पाया तो अपने महबूब का इंतिख़ाब बनूँगा
हक़ीक़त में ही जीना पसंद है मुझे पर
कल कैसा हो जो कोई पूछे तो मैं अपना ख़्वाब लिखूँगा
तुम दुश्मन भले हो मेरे, लाख नफ़रत सही
किसी गली,किसी चौक पर मिले तो मैं तुम्हें गुलाब दूँगा
हर ग़ज़ल हर नज़्म वतन के नाम करूँ मैं
जहाँ कहीं भी रहूँ, मैं अपनी मिट्टी से प्यार बेहिसाब करूँगा
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर!
हटाएंआभार!