इंसान यूँ तो है ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना
पर है उसे व्यर्थ ही समय नष्ट करना
अपने भवितव्य से अनजान
रहे सदा व्याकुल, न पावे त्राण
करके जल्द सारे पड़ावों को पार
शीघ्र ही करना उसे भवसागर पार
हड़बड़ी में जाता जीना भूल
फ़िर वैकुंठ की तैयारी में रहता मशगूल
एक बित्ता जमीन हथियाने पापी जाल बुने
अंततः सब पीछे छोड़ खाली हाथ चले
वह मूढ़, तनिक ये न समझे
पृथ्वी जीतने बड़े-बड़े तुर्रमखां आये
पृथ्वी वहीं है, वे अतुल व्योम में चले गये
शांति हेतु परिजन को दूर-सुदूर करे
अशांत ही परलोक की ओर कूच करे
जीवन-भर जिस निजता का पाठ पढ़ें
वही निज-जन खड़ी उनकी खाट करें
सुख-साधन के पीछे सारा जीवन खपाय
अंततः माटी का शरीर माटी में मिल जाय
कुछ बनने की ज़िद में सारी उमर बिताय
रहेगा कठपुतली ही, न हो कदाचित् व्यग्र हाय!
कौन समझाए? ये संसार है तो बस
ईश्वर की रचनात्मकता का नमूना, जैसे
मैं लिखूँ कविता, तुम बनाओ कलाकृतियाँ
बढ़ई बनाये फर्नीचर, कुम्हार बनाये मूर्तियाँ
ठीक वैसे, है विधाता ने ये संसार बनाया
अपनी सृजनात्मकता का है मिसाल दिया
इस दुनिया का और कोई गूढ़ रहस्य नहीं
तुम्हारे आने का कोई विशेष उपलक्ष्य नहीं
सफल हो या निष्फल रहो
तुम तो बस सद्कर्म करो
चार दिन की है ज़िन्दगी
अनंत असीम अपरिमित जियो
मुकुलित मुदित तरंगित जियो
मुकुलित मुदित तरंगित जियो