मौत आई तो किसी की एक न चली
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम,
सबकी जान पर बनी
अस्थि-पंजर सब राख हो गए
कि चिता जल कर ख़ाक हो गई
गिर रहीं अनगिनत लाशें रोज़ाना
कैसी जानलेवा ये आग फैल गई
मसान की भट्ठी भी नहीं है शांत
न तो क़ब्र की खुदाई ही रुक रही
रुदन-क्रंदन के स्वर हैं कानों में पहरों-पहर गूँजते
ये बेहिसाब मौतें बस
झूठे आँकड़ों में सिमट कर रह गईं
ये क़ौमी "जुलूस-ताजिये" निकालना छोड़ दो
के मौत मज़हब नहीं देखती
एक दूसरे की बस ख़ैर मांगो
के ज़िन्दगी में और बड़ी तलब नहीं होती
जो बन सको तो एक-दूजे का "ऑक्सीजन" बनो
ज़हर तो हवा में भी घुल चुकी है
इसकी हरगिज़ कमी नहीं
सरकारों का क्या, आयेंगी जायेंगी
कुर्सी ही उनका सर्वस्व है,
वो तो उसे ही बचायेगी
तुम अपनी मांगें सही रखो
"मंदिर-मस्जिद" काफ़ी हैं,
पाठशाला-अस्पताल मांगो
ऊपरवाला खूब महफ़ूज़ है,
तुम अपनी ख़ैर तो सोचो
प्रजा सबल बनो जो गद्दी का ख़ौफ़ न करे
प्रजा सजग बनो जो अपनी मांग सही रखे
वरना
"राजा राम" नहीं जो बिन कहे कष्ट हर लें
"राजा राम" नहीं जो बिन कहे कष्ट हर लें
कोरोना की भयावहता लील रही है जिंदगियां । व्यथित हृदय की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंजी हाँ, बहुत ही विकट परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं हम सभी
हटाएंईश्वर जल्द से जल्द ख़ात्मा करें इस वायरस का और साथ ही लोग भी समझें कि अपना कीमती मत सिर्फ़ किसी का भाषण सुनने के लिये न दें।
आभार आपका 🙏🙏
बहुत बहुत धन्यवाद आपका मेरी रचना को इस चर्चा अंक में शामिल करने के लिये
जवाब देंहटाएंआभार
बहुत सही कहा आपने। अब तो सबकी आंखें खुल जानी चाहिए। अब भी न खुली तो फिर कब खुलेंगी?
जवाब देंहटाएंजी हाँ बिल्कुल, अब समय की यही मांग है
हटाएंसार्थक और खूबसूरत लेखन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया...आप पाठकों का प्यार बना रहे
हटाएं"जो बन सको तो एक-दूजे का "ऑक्सीजन" बनो
जवाब देंहटाएंज़हर तो हवा में भी घुल चुकी है
इसकी हरगिज़ कमी नहीं"
बिलकुल सही कहा आपने,अब भी ना समझे,ना चेते तो कभी नहीं
जी हाँ जितनी जल्दी हम इस बात को समझ लें हमारे लिये बेहतर है
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया...आप पाठकों का प्यार बना रहे
हटाएंसटीक कथ्य बहुत कुछ सार्थक कहती कविता।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद।
बहुत बहुत शुक्रिया...आप पाठकों का प्यार बना रहे
हटाएंप्रभावी लेखन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आपका...आभार
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