"हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो, कई बार देखना" ~ निदा फ़ाज़ली

शुक्रवार, 28 मई 2021

साँसों का पहिया

 


बीती रात एक परिचित की मृत्यु हुई
सभी परिजन, मित्र, आस-पड़ोस मोहल्ले वाले
शोक में डूब गये, 
जो कि स्वाभाविक है
मैं भी, जो सख़्त मानता है ख़ुद को
अपने आँसुओं को न रोक सका

इस घटनास्थल से हज़ारों मील दूर
आज मेरे एक मित्र के घर शिशु का जन्म हुआ
सब हर्षोल्लास से मंगलगान गाने लगे
हो भी क्यूँ न, 
विवाह के सात साल बाद संतान-सुख की प्राप्ति हुई

नवजात की निश्छल निर्मल मुस्कान देखकर
मेरा निजी दुःख भी थोड़ा कम हुआ
और 
अब तक जो निराशा ने जगह घेर रखी थी
वहाँ एक आशा जगी

संभवतः वही आत्मा पुनः अवतरित हुई होगी
चौरासी लाख योनियों में से चुनकर एक,
सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि में
क्या पता?

ऐसे ही तो चलता है न इस मही पर
अनगिनत साँसों के पहिये पर 
भीमकाय जीवन-रूपी रथ
और हज़ारों-करोड़ों साल से
चलती आ रही है ये संसृति,
निरंतर...क्यूँ?

एक का पहिया रुका नहीं
कि दूजे का चलायमान हो जाता है
उसी बिंदु से, उसी क्षण,
उस बिंदु की विशाल परिधि में ही
कोसों दूर या आस-पास ही कहीं

पवित्र गीता में भी तो यही लिखा है न
लोगों का आना-जाना यूँ ही लगा रहेगा 
चिरकाल तक
सृष्टि चलती रहेगी नियमतः
बिना रोक-टोक के

शुक्रवार, 21 मई 2021

आदत हो जाने की आदत

 


इंसानों की एक खराब आदत है
हर चीज़ की आदत हो जाना
कुछ ठीक-ठाक वक़्त बीतने के बाद
एक चीज़ के साथ
चाहे वो एक स्थिति-परिस्थिति हो
या कम-ज़्यादा समय तक साथ रहने वाले इंसान हों
या फ़िर जीवन के अन्य छोटे-बड़े परिवर्तन
इंसान उसके साथ जीने का आदी हो जाता है
अब नहीं तो तब

यह सही भी है,
पर 
कुछ मौकों पर
यह उसे जीने का हौसला देती है
प्रतिकूल समय में

लेकिन,
जब बदतर से बदतरीन स्थिति हो चारों ओर
हलाहल के कड़वे घूँट पी रहे हों लोग
और मौत के घाट उतर रहे हों
तो 
आदमी ज़रा अपनी इस
"किसी भी चीज़ की आदत हो जाने की आदत" 
से परहेज़ करे

लाशों के साथ जीने का भी कहीं आदी न हो जाये
कहीं भाव-शून्य न हो जाय
और 
अपनी ज़िंदगी उसी बेपरवाही-बेफ़िक्री में 
उन्मत्त होकर न जिये
के जैसे सब सामान्य ही हो

जब दूसरे 
एक कुचक्र 
में फंसकर दम तोड़ रहे हों
तो "नैतिकता" तो यह है कि
मानस उनका मर्म जाने
अपनी आँखें आर्द्र करे
ऐसे जटिल समस्या का शीघ्र निदान हो,
ईश्वर से प्रार्थना करे
अपनी गति थोड़ी धीमी करे
और अपने हाथ-पैर समेट कर जिये

करुणा पैदा करे और
जीवित लोगों के काम आए 
दुखियारों का कष्ट हरे
उनके लिये एक उम्मीद की किरण बने
ठिठकते जीवन में चंद साँसें और जोड़े
कुछ अपनी कहे, ज़्यादा उनकी सुने
थोड़ा और मनुष्य बने
थोड़ा और मनुष्य बने

शुक्रवार, 14 मई 2021

प्रकृति का कर्ज़



खरीदा हुआ दाना
खरीदा हुआ पानी
खरीदा हुआ अनल-अनिल
खरीदी हुई धरणी

 
इस उधार की ज़िंदगी में
बड़ी खरीदारी कर ली हमने
इस भ्रम में कि
प्रकृति के कर्ज़ से उऋण हो जाएंगे


मगर इस संभ्रम में
सभी वित्तीय कोष 
या तो खाली हो गये या
खाली होने के कगार पर हैं
और
हम कर्ज़दार के कर्ज़दार रह गये

शुक्रवार, 7 मई 2021

दंगा

 


जब कोई दंगा होता है
तो कहर बरपता है
अनगिनत मौतें होती हैं
ज़िंदगियाँ पायमाल हो जाती हैं
और उन सारी मौतों का हिसाब
महज़ आँकड़ों से नहीं लगाया जा सकता
मेरे तुम्हारे लिए होगी एक सुर्खी
या सुर्खियों में बताई गई सिर्फ़ एक संख्या

ज़रा उन मांओं से पूछो जिनकी गोद उजड़ गई
वो दर्द मिला जिसकी कोई दवा नहीं
उन दुल्हनों से पूछो जिनके दूल्हे शादी की अगली सुबह ही 
मौत की गहरी नींद में सो गए
हाथों की मेंहदी देख रो-रोकर होती है रात,
होता है दिन
उन मासूम बच्चों से पूछो जिनके सर से बाप का साया छिन गया
तमाम उम्र के लिये उनके हिस्से पिता-प्रेम नहीं आ पाया

हुक्मरानों को नहीं मालूम "दंगों की पीड़" क्या होती है
किसी अपने की मौत का ग़म क्या होता है
एक ग़लत हुक्म नहीं लिखते सिर्फ़
साथ ही एक तबाही का फ़रमान भी ज़ारी कर दिया जाता है
बहुत भारी तबाही
हर जली-टूटी दीवार चीख-चीखकर इस बात का
सबूत दे रही होती है
के उस रात क्या गुज़री

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

पारस्परिक प्रेम

 


तन यहाँ मन कहाँ-कहाँ
प्रेम बिनु पंछी खिड़े जहाँ-तहाँ
वो विवाहित या विवाहिता
जिसके हिस्से
प्रेम नहीं पड़ता
बड़े अभागे कहलाते हैं

यह और भी हृदय का शूल
साबित होता है जब
जोड़े में से कोई एक
कलुषित प्रेम में उद्भ्रांत हो

वंश के विस्तार हेतु किया गया
बिस्तर वाला कर्तव्यबद्ध-प्रेम
या कामुकता की नैसर्गिक तृष्णा शांत करने हेतु
की गई उत्साहित यौन-क्रीड़ा 
एक शरीरिक संबंध तो स्थापित कर सकता है
प्रेम नहीं

प्रेम की वास्तविक अनुभूति
किसी छुअन का मोहताज नहीं
किसी की स्नेहिल आँखों को देखकर भी
एक सात्विक प्रेम की नींव रखी जा सकती है

दो लोगों के परिणय में
पारस्परिक प्रेम की गुंजाइश हमेशा हो सकती है
इसे समझौता हमने ही बनाया है
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कलुषित- अपवित्र, निंदित
उद्भ्रांत- भटका हुआ, गुमराह 
नैसर्गिक- स्वाभाविक, प्राकृतिक 

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

मसान की भट्ठी

 

मौत आई तो किसी की एक न चली
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम,
सबकी जान पर बनी
अस्थि-पंजर सब राख हो गए
कि चिता जल कर ख़ाक हो गई
गिर रहीं अनगिनत लाशें रोज़ाना
कैसी जानलेवा ये आग फैल गई

मसान की भट्ठी भी नहीं है शांत
न तो क़ब्र की खुदाई ही रुक रही
रुदन-क्रंदन के स्वर हैं कानों में पहरों-पहर गूँजते
ये बेहिसाब मौतें बस 
झूठे आँकड़ों में सिमट कर रह गईं

ये क़ौमी "जुलूस-ताजिये" निकालना छोड़ दो
के मौत मज़हब नहीं देखती
एक दूसरे की बस ख़ैर मांगो
के ज़िन्दगी में और बड़ी तलब नहीं होती
जो बन सको तो एक-दूजे का "ऑक्सीजन" बनो
ज़हर तो हवा में भी घुल चुकी है
इसकी हरगिज़ कमी नहीं

सरकारों का क्या, आयेंगी जायेंगी
कुर्सी ही उनका सर्वस्व है,
वो तो उसे ही बचायेगी
तुम अपनी मांगें सही रखो
"मंदिर-मस्जिद" काफ़ी हैं,
पाठशाला-अस्पताल मांगो
ऊपरवाला खूब महफ़ूज़ है,
तुम अपनी ख़ैर तो सोचो

प्रजा सबल बनो जो गद्दी का ख़ौफ़ न करे
प्रजा सजग  बनो जो अपनी मांग सही रखे
वरना
"राजा राम" नहीं जो बिन कहे कष्ट हर लें
"राजा राम" नहीं जो बिन कहे कष्ट हर लें

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

त्रासदी



आग लगी, भगदड़ मची, शोर हुआ
सब एक-दूसरे को धक्का दे भागने लगे आयें-बांयें
सारे उस धधकती आग के डर से चीखने-पुकारने लगे
कुछ तो आनन-फानन में खिड़की से ही कूदने लगे
तो कुछ उस जानलेवा आग की लपटों में झुलसने लगे
और अंततः मौत की भेंट चढ़ गए
जब कोई आपदा आती है तब बुद्धि किसकी काम करती है भला
और दूसरे लोग तो बस तमाशबीन
स्मार्टफोन निकाला और लगे वीडियो बनाने
सारी मानसिकता व नैतिकता रख दी है ताख पर
जाने कौन-सी आग की लपटों का शिकार हो गई है मनुष्यता
बहुत भारी त्रासदी है ये हमारी 'टेक-सैवी' पीढ़ी का
मानो या ना मानो!!!

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

तरक्की

 


इंसान तरक्की कर रहा है
आधुनिक युग का इंसान खूब तरक्की कर रहा है
दिन दुगुनी रात चौगुनी कर रहा है
हो भी क्यूँ न!
उन्नत प्रौद्योगिकी युग है
घंटों का काम मिनटों में संभव है
अभियांत्रिकी की देन है यह अद्भुत क्रांति
पैसा इफ़रात है,
और अर्जित करने में लगा हुआ है आदमी
मंहगाई जो सीमाएं लांघ रही है
पर धनोपार्जन की इस अंधी दौड़ में
ये इंसान अत्यंत खालीपन व रिक्तता से गुज़र रहा है
भावनाओं का खालीपन और रिश्तों में रिक्तता
इंसान यहाँ भी अप्रतीम तरक्की कर रहा है
दिन दुगुनी रात चौगुनी कर रहा है
समझ नहीं आता!
इसे इंसान का उत्थान कहें या पतन?

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

चलो आज रंगों की बात करें

 


चलो आज रंगों की बात करें
ढोल ताशे मृदंग बाजे
प्रकृति मोहक सिंगार साजे
महकी फ़िज़ाओं में प्यार पले
चलो आज खुशरंगों की बात करें

अड़चन छोड़ युक्ति सोचें
पतझड़ बीते वसंत झूमे
दिल में एक नया उमंग भरें
चलो आज रोशनी की बात करें

घृणा नहीं प्रेम दें
उर में देवाकृति उकेर दें
सबसे गले मिल
चलो अब मेल-मिलाप करें
चलो आज रंगों की बात करें

दुःस्वप्न भूल मृदु-स्वप्न जियें
कुंठा व म्लान त्याग,
चलो उत्सवों की बात करें
मौत पसरा हो भले ही क्यूँ न
चलो आज ज़िंदगी की बात करें
चलो आज रंगों की बात करें

रंग-गुलाल-सा जीवन खिले
काँटे नहीं गुलाब मिलें
मरु पे सहसा दूब उगे
आओ पुनः फूंक आशाओं की भरें
चलो आज रंगों की बात करें

हम मन-मलंग हों
निखरा हरेक अंग हो
हर रोज़ नूतन शिखर छूएं
चलो आज बुंलदियों की बात करें
चलो आज रंगों की बात करें

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

धुँधली तस्वीर

कुछ तस्वीरें धुँधली-सी खिंच जाती हैं
जिन्हें लोग फ़िज़ूल समझकर फ़ोन 
अथवा 
कैमरे की मेमोरी से डिलीट कर देते हैं
एक परफ़ेक्ट तस्वीर खिंचने से पहले की
दर्जनों नाकामयाब कोशिशों का संकलन है ये धुँधली तस्वीरें
पर इन धुँधली तस्वीरों का अधूरापन ही मुझे भाता है
जाने क्यूँ ?
ये इम्परफ़ेक्ट तस्वीरें ही मुझे परफ़ेक्ट लगती हैं
ये अधिक सच्ची लगतीं हैं मुझे
इस धुँधलके में कहीं न कहीं व्यक्ति की वास्तविक मन:स्थिति का भान होता है
पूरी साफ़-सुथरी परफ़ेक्ट तस्वीरों में एक मिलावट-सी लगती है
जैसे दूध में पानी की मिलावट
कच्चे और पक्के फल की मिलावट
व्यक्ति अपने मूल भाव-दशा में नहीं रहता 
परफ़ेक्ट दिखने की होड़ में
चित्तवृत्ति पे ज्यूँ ओढ़ लिया हो एक छद्मपूर्ण आवरण
आत्मा ने ज्यूँ धारण कर ली हो एक भ्रामक काया

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

ये चुप्पी क्यूँ?

 

भरे बाज़ार हो जब किसी नारी का चीरहरण
हलधर त्यागे प्राण जब न पावे वाजिब दाम, 
दलहन हो या तिलहन
सेना की शहादत पर हो जब भरपूर राजनीतिकरण
गौ-रक्षा के नाम पे हो जब बेकसुरों का मरण
तब लाज़मी है पूछना के ये चुप्पी क्यूँ?

सत्ताविरोध पर जब लग जाए देशद्रोह का लांछन
चुनाव में बहे बेहिसाब पैसा जब करके राष्ट्रकोष-गबन
विकास के नाम पे हो जब 'फ़ेक न्यूज़' का वितरण
वोटों के लिए जब हो सरेआम खरीद-फ़रोख़्त का चलन
तब लाज़मी है पूछना के ये चुप्पी क्यूँ?

पप्पू, चोर व नीच जैसे अपशब्दों से जब भरा हो राजनैतिक भाषण
एक दल की पराजय हेतु जब बनने लग जाए 'महागठबंधन'
किसने किये कितने घोटाले, होने लगे जब इस बात का 'कॉम्पिटिशन'
टीवी चैनलों पर होने लगे जब निरा झूठ का प्रसारण
तब लाज़मी है पूछना के ये चुप्पी क्यूँ?

अर्थशास्त्री की बग़ैर सुने जब कर दिया जाए 'डीमोनिटाइजेशन'
संसद में आँख मारने या गले पड़ने का जब हो जाए चलन
लगातार बारंबार जब होने लगे मानवाधिकार हनन
'सत्तर साल' बाद भी जब शिक्षा व स्वास्थ्य का ना हो पाया हो सशक्तिकरण
तब लाज़मी है पूछना के ये चुप्पी क्यूँ?

जय श्री राम औ' चंडीपाठ से जब राजतंत्री करें सम्मोहन
अतिरिक्त विचारों का जब होने लगे सर्वस्व उन्मूलन
एमपी एमएलए की चोरी से हो जब विधिवत सरकार गठन
अमर्यादित मूल्य बढ़ोतरी से दूभर हो जाये जब भरण-पोषण
तब लाज़मी है पूछना के ये चुप्पी क्यूँ?

सड़क-पानी-बिजली-इंटरनेट छोड़ हो जब मंदिर-मस्जिद का उल्लेखन
सत्ता-लोलुप कभी बनें मोहम्डन तो कभी जनेऊधारी ब्राह्मण
वोट बैंक और सत्तालोभ वश जब भ्रष्टाचारियों व अतंकियों का हो नामांकन
देशभक्ति व राष्ट्रप्रेम की जब बदल दी जाए 'डेफिनिशन'
तब लाज़मी है पूछना के ये चुप्पी क्यूँ?

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

इन्क़िलाब


चेहरे पे ओढ़े रखता हूँ चादर शीरीन मुस्कान की
जो दिल की लिखूँगा तो इन्क़िलाब लिखूँगा

ख़ामोशी का ही पहरा रहता है मेरे ज़हन में अक़्सर

पन्नों पर फटूँगा तो सैलाब लिखूँगा

दुनियां की इस मोह-माया से यूँ तो परे हूँ

ग़र जो बन पाया तो अपने महबूब का इंतिख़ाब बनूँगा

हक़ीक़त में ही जीना पसंद है मुझे पर

कल कैसा हो जो कोई पूछे तो मैं अपना ख़्वाब लिखूँगा

तुम दुश्मन भले हो मेरे, लाख नफ़रत सही

किसी गली,किसी चौक पर मिले तो मैं तुम्हें गुलाब दूँगा

हर ग़ज़ल हर नज़्म वतन के नाम करूँ मैं
जहाँ कहीं भी रहूँ, मैं अपनी मिट्टी से प्यार बेहिसाब करूँगा

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

कठपुतली



इंसान यूँ तो है ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना
पर है उसे व्यर्थ ही समय नष्ट करना
अपने भवितव्य से अनजान
रहे सदा व्याकुल, न पावे त्राण

करके जल्द सारे पड़ावों को पार
शीघ्र ही करना उसे भवसागर पार
हड़बड़ी में जाता जीना भूल
फ़िर वैकुंठ की तैयारी में रहता मशगूल

एक बित्ता जमीन हथियाने पापी जाल बुने
अंततः सब पीछे छोड़ खाली हाथ चले
वह मूढ़, तनिक ये न समझे
पृथ्वी जीतने बड़े-बड़े तुर्रमखां आये
पृथ्वी वहीं है, वे अतुल व्योम में चले गये

शांति हेतु परिजन को दूर-सुदूर करे
अशांत ही परलोक की ओर कूच करे
जीवन-भर जिस निजता का पाठ पढ़ें
वही निज-जन खड़ी उनकी खाट करें

सुख-साधन के पीछे सारा जीवन खपाय
अंततः माटी का शरीर माटी में मिल जाय
कुछ बनने की ज़िद में सारी उमर बिताय
रहेगा कठपुतली ही, न हो कदाचित् व्यग्र हाय!

कौन समझाए? ये संसार है तो बस
ईश्वर की रचनात्मकता का नमूना, जैसे
मैं लिखूँ कविता, तुम बनाओ कलाकृतियाँ
बढ़ई बनाये फर्नीचर, कुम्हार बनाये मूर्तियाँ
ठीक वैसे, है विधाता ने ये संसार बनाया
अपनी सृजनात्मकता का है मिसाल दिया

इस दुनिया का और कोई गूढ़ रहस्य नहीं
तुम्हारे आने का कोई विशेष उपलक्ष्य नहीं
सफल हो या निष्फल रहो
तुम तो बस सद्कर्म करो

चार दिन की है ज़िन्दगी
अनंत असीम अपरिमित जियो
मुकुलित मुदित तरंगित जियो
मुकुलित मुदित तरंगित जियो


शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

क्षुद्रता



दुख होता है तुम्हारी क्षुद्रता देखकर
अरे हाँ! तुम्हारी सोच की क्षुद्रता देखकर
बिना जाने ही अपनी राय बना लेते हो
किसी की बस सूरत देख उसकी कुंडली निकाल लेते हो
किसी के पहनावे को देख उसका चरित्र बता देते हो
मंदिर में देवी की पूजा करते हो
और सड़क पर जाती लड़की के तन-मन को चुभती नजरों से  भेदते हो
गरीबों की गरीबी का मज़ाक उड़ाते हो
और अमीरों की अमीरी से जलते हो 
किसी की ख़ामोशी को उसकी कमज़ोरी समझ लेते हो
तो किसी के बड़बोलेपन को बदसलूकी
किसी को अपना हमराज़ बताते हो और उसी के राज़ को राज़ नहीं रखते
बाहर लोगों को तहज़ीब सिखाते हो
घर में माँ को खरी-खोटी सुनाते हो  
कैसे कर लेते हो ये सब... 
दुख होता है तुम्हारी क्षुद्रता देख कर
अरे हाँ! तुम्हारी सोच की क्षुद्रता देखकर

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

समझौता



लो कर लिया समझौता देकर अपने प्यार का बलिदान
पर माफ़ करना उसे पूरी तरह अपना न सकी

लो हो गयी सुहागन, कर लिया ख़ुद को इश्क़-गली में बदनाम
पर माफ़ करना तेरे सिंदूरी इश्क़ को ठुकरा न सकी

लो कर दिया कल रात अपने जिस्म को नीलाम
पर माफ़ करना तुम्हारे प्यार को न कर सकी

लो दे दिया उसे छूने का हक़ रख के ताख पर दीन-ओ-ईमान
पर माफ़ करना तेरी छुअन को न भुला सकी

लो कर दिया अपने अधरों को किसी और के नाम
पर माफ़ करना तेरी अधरों के स्पर्श को बिसरा न सकी

लो अब रोज़ो-शब रहेगी महफ़ूज़ किसी और की हिफ़ाज़त में तुम्हारी जान
पर माफ़ करना तेरी बाहों की गिरफ़्त में मिला जो सुकून पा न सकी

लो दे दिया धोखा ख़ुद को भी और हो गयी उसकी तमाम
पर माफ़ करना फ़िर भी तेरा दर्जा उसे दे न सकी

लो कर ली कोशिश के लिख दूँ दिल पे किसी और का नाम
पर माफ़ करना मेरी धड़कनों पर है इक तेरा ही नाम, 
इस बात को झुठला न सकी

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

सच की तलाश



निकला हूँ सच की तलाश में मैं
इक दिन सवेरा होगा, हूँ बस इसकी आस में मैं
क्या बताऊँ क्या-क्या घट रहा रोज़ाना?
उठती है भीतर इक टीस
होता हूँ यह सब देख बहुत उदास-सा मैं

यूँ तो टुकड़ों-सा बिखर जाऊँ पर
ये जो हलाहल है फैला हुआ, यत्र तत्र सर्वत्र
नष्ट हो जाएगा
जोड़े रखता हूँ ख़ुद को इसी विश्वास से मैं

जाने कितने बहरूपियों से होती है भेंट
उनके पाखंड की अनुभूति होते हुए भी,
करता हूँ उनको सहृदय स्वीकार मैं
यूँ के मैं ही नहीं हूँ सच का पुतला,
मैं ही नहीं हूँ अकेला रोशनी का चिराग़
और ना ही इस पापी और विषैली दुनिया के
अंधेरे का नाश करने में सक्षम हूँ मैं
पर क्या करूँ?
ग़ुबार आख़िर किस हद तक अंदर रखूँ मैं

नहीं होगी दिनकर-सी क्रांति मेरी कविताओं में
पर कलम की ताक़त पे थोड़ा तो विश्वास रखता हूँ मैं
आज जब हम चाँद की सतह तक अनुसंधान को चले हैं
भू-मंडल के अस्तित्व पर जो प्रश्न-चिन्ह लगा है
उसके उत्तर की तलाश में हूँ मैं
हाँ! निकला हूँ सच की तलाश में मैं
इक दिन सवेरा होगा, हूँ बस इसकी आस में मैं

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

क्या सच है क्या झूठ



क्या सच है क्या झूठ
सब नेता-राजतंत्री हैं मूक
राष्ट्र-गौरव को पहुँची है ठेंस
जाने कौन ने किया कलेस
इक ओर गणतंत्र की रम्य झांकी थी
दूजी ओर पत्थर व लाठी थी
लाल किले पर ज्यूँ फ़हराया मज़हबी ध्वज
माँ भारती ने त्युँ निज ताज दिया तज
सिपाही चतुर्दिक कर रहा संघर्ष था
बाहुबली अप्लापियों ने किया विध्वंस था

आंदोलन नहीं है यह
मर्यादा लांघी है
मज़दूर किसान के भेस में
कुछ उपद्रवी उत्पाती हैं
दंगे से क्या पूरी होगी मांग?
शांति छोड़ जो रचा यह स्वाँग
कैसे हो जय जवान जय किसान?
जब तिरंगे का हुआ विश्व-भर अपमान
दुःख है, किसानों का अहित हुआ
जो हुआ अनुचित अनिष्ट हुआ
जो हुआ अनुचित अनिष्ट हुआ

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

अख़बार



अख़बार में ख़बर आई
एक बस पुल से नीचे गिरी, 29 की मौत 50 घायल
ये ख़बर मेरे लिए सिर्फ़ एक ख़बर ही थी
जो पढ़ भी लिया और नहीं भी, 
बस ऐसा कुछ
होता है ना ! आदतन यूँ ही...हम अख़बार के पन्ने पलटते हैं और
कुछ छोटी कुछ बड़ी ख़बर पढ़ते हैं
वो हमारे लिए महज़ एक 'पीस ऑफ इन्फॉर्मेशन' होती है
मगर इस बार ये ख़बर घर कर गई
जब पता चला इस हादसे में कोई अपना भी था
मानो या ना मानो, एक ख़बर होती है
महज़ स्याही से लिखे हुए कुछ अक्षर, कुछ शब्द
पर वही ख़बर बन जाती है संवेदनाओं का, भावनाओं का स्त्रोत
जब निकल जाते हैं उससे ताल्लुक़ात,
दूर के ही सही
अबके बार ये ख़बर हफ़्ते भर रही मेरे साथ
शायद कुछ और दिन ठहरती ग़र रिश्ता और क़रीबी होता
लेकिन 
फ़िर भी ज़िंदगी की अख़बार के सफ़हे पलटने तो थे
वही कुछ छोटी कुछ मोटी ख़बर
कुछ बड़ी कुछ तगड़ी ख़बर
जो पढ़ लिये और नहीं भी
जो सुन लिये और नहीं भी

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

हाथरस



कठुआ, उन्नाव, हाथरस
छाया सघन घोर तमस
स्त्री-जीवन हर ओर पीड़ित
चोटिल देह प्राण कुपित

न कोई सुनवाई, न कोई पेशी
फिर रही वो लिए
टूटी रीढ़ व जीभ कटी
फेंक दी जाती सरेआम अधनंगी लाश
न हो रहा दोषियों को कारावास

नाकामी छुपा ली खाकी ने अपनी
करके बच्ची का जबर संस्कार
पर बेहद दुःखद है ख़त्म न हो रहा 
उद्दंड पुरुष का यह विकार

दोहराया जा रहा अलबत्ता फिर वही एक बार
लिख रहे कवि छंद और उत्कृष्ट अलंकार
कड़ी निंदा से भर गए अख़बार
सोशल मीडिया पर लग गया हैशटैग का अंबार

होगी न्यूज़रूम से खोखली हुंकार
'हैंग द रेपिस्ट्स' की लगेगी निष्फल गुहार
कानून-व्यवस्था कटघरे में होगी फिर एक बार
होगा तर्क-वितर्क, मीमांसा, सत्य-असत्य पर विचार

सब सो जाएंगे पुनः कुम्भकर्ण की नींद
तब तक जब तक फिर न ऐसा कुछ घटे 
किसी का सर न कटे, किसी का माथा न फटे
सब हो जाएगा सामान्य यूँ ही हर बार
सिलसिलेवार लगातार बारंबार

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

निज़ाम

चंद ही निज़ाम हैं यहाँ
वरना हर कोई किसी न किसी का ग़ुलाम है यहाँ

यूँ तो सबकी ज़िंदगी में कुछ न कुछ ख़ास है
पर किसी किसी की चर्चा-ए-आम है यहाँ

रक़बत की अंधी दौड़ में रंजिश ही पालते हैं लोग
एक दूसरे का यहाँ एहतराम कहाँ

मार-काट, लूट-पाट मची है चारों तरफ़ हरसू
सरकार कोई भी आए जाए, इन विकृतियों पर विराम कहाँ

सरस्वती और लक्ष्मी की लड़ाई में लक्ष्मी ही जीत रही है सदा
ज्ञान-चक्षु  जन्म-जन्मांतर से बंद, 
फिर भी ख़ुद को हर कोई महाज्ञानी समझता है यहाँ

इंसान भी कैसा जीव है, मंगल पर जीवन का अंश ढूँढता है
पृथ्वी पर पंचतत्व होते हुए भी मची है त्राहि-त्राहि, 
इसका किसी को संज्ञान कहाँ

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

ख़ुमारी



ख़ुमारी...
ख़ुमारी पुरानी तस्वीरों की
ख़ुमारी पुराने लम्हातों की
ख़ुमारी पुराने रिश्तों की
ख़ुमारी पुराने जज़्बातों की
ये ख़ुमारी अच्छी है
तब तक जब तक 
किसी बीमारी में न तबदील हो जाये

ख़ुमारी में रहो इस वक़्त की
ख़ुमारी में रहो मुसाफ़िर-ए-सम्त की
ख़ुमारी में रहो अपनों के उल्फ़त की
ख़ुमारी में रहो बू-ए-मोहब्बत की
इस ख़ुमारी में डूबे रहो 
तब तक जब तक
ये ज़िन्दगी ख़ुदा के हाथों ज़ब्त न हो जाये 

खुशी है एक मृगतृष्णा

कभी किसी चेहरे को गौर से देखा है हर मुस्कुराहट के पीछे ग़म हज़ार हैं क्या खोया क्या पाया, हैं इसके हिसाब में लगे हुए जो है उसकी सुद नहीं, जो...