"हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो, कई बार देखना" ~ निदा फ़ाज़ली

रविवार, 13 दिसंबर 2020

खुशी है एक मृगतृष्णा


कभी किसी चेहरे को गौर से देखा है
हर मुस्कुराहट के पीछे ग़म हज़ार हैं
क्या खोया क्या पाया, हैं इसके हिसाब में लगे हुए
जो है उसकी सुद नहीं, जो अक्षुण्ण निकल पड़े उसकी तलाश में
खुशी है एक मृगतृष्णा

जिस्म तो पास हैं, रूह में कोसों की दूरी
ऐसे क्यूँ जुदा-जुदा, कैसी है मजबूरी
कहते हैं प्यार है, पर जताते हैं नहीं
माना ये एहसास का मामला है, हम अपनी ज़ुबाँ से कभी कहते क्यूँ नहीं
जब इंसान गुज़र जाता है, हम रोते हैं पछताते हैं 
काश और शायद की लड़ाई फिज़ूल में लड़ते हैं 
खुशी है एक मृगतृष्णा

ये कैसी कैफ़ियत, ये कैसा जुनून 
सब भाग रहे हैं बेतहाशा ज़िन्दगी की दौड़ में
क्या चाहिए ज़िंदगी से
कभी एक पल भी नहीं पड़े सोच में
खुशी है एक मृगतृष्णा

कोई बड़ी गाड़ी में बैठ कर रो रहा
कोई सड़कों पर गुलाब बेचकर ही मुस्कुरा रहा 
कोई बड़े बंगले में भी बेचैन 
कोई फुटपाथ पर ही सुकून की नींद सो रहा
खुशी है एक मृगतृष्णा

कहते हैं ये ज़हनियत की बात है 
कोई है सदाबहार, किसी के दफ़्न तमाम जज़्बात हैं 
कोई बेख़ौफ़ ज़िन्दगी जी रहा, किसी के संगीन मामलात हैं 
ज़िन्दगी को यूँ ज़ाया न किजिये हुज़ूर 
जी हाँ, मज़ा लीजिए वरना कब कफ़न उढ़ा दिए जाओगे, महज़ कुछ वक़्त की बात है 
खुशी है एक मृगतृष्णा

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