"हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो, कई बार देखना" ~ निदा फ़ाज़ली

रविवार, 13 दिसंबर 2020

तो क्या बात थी


समुंदर की गहराई, या आसमान की ऊंचाई
हो सुदृढ़ जो भेद पाते तो क्या बात थी 
मिले सफलता की रोशनाइ, या हो जाए भले जग हँसाई
जो निडर हो आगे बढ़ पाते तो क्या बात थी 

शायरों की रुबाई, या कवियों की कविताइ 
जो भली-भाँति जान पाते तो क्या बात थी
रेगिस्तान की चिलचिलाती गर्मी, या कपकपाती ठंड पहाड़ों की
वीर जवानों की तरह जो हम भी बर्दास्त कर पाते तो क्या बात थी 

बाबूजी की दी हुई घड़ी, या माँ के हाथों स्वेटर की बुनाई 
जो ऑनलाइन शॉपिंग की जगह ले पाती तो क्या बात थी
बेटों की आबदाने की तलाश में प्रियजनों से लंबी जुदाई 
या बेटियों की बाकी उम्र के लिए घरों से विदाई
जो ऐसी रवायत चलन में न होती तो क्या बात थी

शहर में गाँव-सी शुद्ध हवा चले पुरवाई और 
गाँव में शहरों-सा घर-घर हो बच्चों की शिक्षा और रोगियों की दवाई 
जो ये सपना साकार होने पाए तो क्या बात थी 
अभिनेता गर करे अभिनय ये न सोचकर कि करेगी फ़िल्म करोड़ों की कमाई
और जवानों की शहादत पे न हो राजनैतिक रोटियों की सिकाई 
जो यह भारतवर्ष का भविष्य होने पाए तो क्या बात थी 

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