"हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो, कई बार देखना" ~ निदा फ़ाज़ली

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

इन्क़िलाब


चेहरे पे ओढ़े रखता हूँ चादर शीरीन मुस्कान की
जो दिल की लिखूँगा तो इन्क़िलाब लिखूँगा

ख़ामोशी का ही पहरा रहता है मेरे ज़हन में अक़्सर

पन्नों पर फटूँगा तो सैलाब लिखूँगा

दुनियां की इस मोह-माया से यूँ तो परे हूँ

ग़र जो बन पाया तो अपने महबूब का इंतिख़ाब बनूँगा

हक़ीक़त में ही जीना पसंद है मुझे पर

कल कैसा हो जो कोई पूछे तो मैं अपना ख़्वाब लिखूँगा

तुम दुश्मन भले हो मेरे, लाख नफ़रत सही

किसी गली,किसी चौक पर मिले तो मैं तुम्हें गुलाब दूँगा

हर ग़ज़ल हर नज़्म वतन के नाम करूँ मैं
जहाँ कहीं भी रहूँ, मैं अपनी मिट्टी से प्यार बेहिसाब करूँगा

2 टिप्‍पणियां:

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