इक दिन सवेरा होगा, हूँ बस इसकी आस में मैं
क्या बताऊँ क्या-क्या घट रहा रोज़ाना?
उठती है भीतर इक टीस
होता हूँ यह सब देख बहुत उदास-सा मैं
यूँ तो टुकड़ों-सा बिखर जाऊँ पर
ये जो हलाहल है फैला हुआ, यत्र तत्र सर्वत्र
नष्ट हो जाएगा
जोड़े रखता हूँ ख़ुद को इसी विश्वास से मैं
जाने कितने बहरूपियों से होती है भेंट
उनके पाखंड की अनुभूति होते हुए भी,
करता हूँ उनको सहृदय स्वीकार मैं
यूँ के मैं ही नहीं हूँ सच का पुतला,
मैं ही नहीं हूँ अकेला रोशनी का चिराग़
और ना ही इस पापी और विषैली दुनिया के
अंधेरे का नाश करने में सक्षम हूँ मैं
पर क्या करूँ?
ग़ुबार आख़िर किस हद तक अंदर रखूँ मैं
नहीं होगी दिनकर-सी क्रांति मेरी कविताओं में
पर कलम की ताक़त पे थोड़ा तो विश्वास रखता हूँ मैं
आज जब हम चाँद की सतह तक अनुसंधान को चले हैं
भू-मंडल के अस्तित्व पर जो प्रश्न-चिन्ह लगा है
उसके उत्तर की तलाश में हूँ मैं
हाँ! निकला हूँ सच की तलाश में मैं
इक दिन सवेरा होगा, हूँ बस इसकी आस में मैं
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 05 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका
हटाएंअनेक अनेक आभार...
बेहतरीन क्रांतिकारी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार..
सादर..
बहुत बहुत धन्यवाद!!!
हटाएंसच की तलाश में , क्या वाकई सच मिल पाता है । गहन अनुभूति ।
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंसच मिल पाना इतना आसान तो नहीं होता, पर हाँ कोशिश ज़रूर होती है की सच तक पहुँच पाऊँ...सत्य को ढूंढ़ना अपने आप में एक गंभीर काम है, और फिर इस मही पर... अगर देखा जाय तो ये जग ही मिथ्या है, ईश्वर की रचनात्मकता का नमूना मात्र है